कविता : जाग महाकाल जाग

कविता


किया नहीं जो अभी तक करके देखें
किया नहीं जो अभी तक करके देखें
जिंदगी पर पड़ी है कुछ डरके देखें
दुश्मन निरंतर राह अपनी बदल रहा
नवपथ पर कदम हम भी धरके देखें
उकसा रहा हमें लड़ने को देखिए
हम भी चतुराई से उबर के देखें
कहीं चल कर कोरानादानी गढ़ कर
घुसपैठ उसमें ख़ुद को भर कर देखें
नित्य रूप बदल रहा वो हम क्यों नहीं
कुछ हम भी दोस्त बदल संवर के देखें
लो फिर आई होली
आंदोलन
– डॉ एम डी सिंह
विरोध और विवेक
जब तक रहें साथ
हिंसक नहीं होंगे हाथ
इच्छाएं लक्ष्य पर अड़ी रहेंगी
बिन भटके खड़ी रहेंगी
आतंक नहीं
आंदोलन जन्म लेगा
लक्ष्य पाने की जिद्द
पीड़ा सहने का माद्दा
भय को पराजित करेंगे
अभय धुआं बन कर फैलेगा
समसोची दिमागों को अपनी चपेट में लेगा
सुलगेगा धू-धू कर जलेगा
लोग भविष्य की आतताई परिणामों को
दरकिनार करेंगे
आंदोलन चल पड़ेगा
जब चेतना चित पर घर बना लेगी
मन को पकड़कर भीतर बिठा लेगी
धारणा पर धैर्य सवार हो जाएगा
विरोधी लक्ष्य साधक योगी बन जाएगा
हठ तप को जन्म देगा
तप विस्मयकारी ताकत को
प्रतिरोध विखंडित होने लगेंगे
आंदोलन लक्ष्य के निकट होगा
विकार और विध्वंस विलुप्त हो जाएंगे
विरोध की विवेचना विवेक को साधेगी
गाठें खुलेंगी अवरोध अवमुक्त हो जाएंगे
गूंगा भी बोलेगा बहरा भी सुनेगा
प्रतिरोधी सर सत्य के आगे झुकेगा
साधक समाधि को
आंदोलन आनंद को पा लेगा।
आया पतझड़
जाते शिशिर आते बसंत का
दिख रहा आता संदेशू
हिल रहे मुरझाए पीत पर्ण
वृक्षों में हलचल जागी
आया पतझड़
शीत आखिरी जोर लगाता
पश्चिमी हवाओं को उकसाता
श्वेत चादर उढ़ा पृथ्वी को
पथ पथिक दोनों को भरमाता
थक हार जाने को है
आया पतझड़
गेहूं सरसों चना मटर ने
अलसी लतरी और रहर ने
चादर बिछा धरती पर हरा
तरुवरों को हांक लगाया
उठो-उठो जागो तुम सब भी
धुलने धूल धूसरित पीत पात को
आया पतझड़
भरभूजन की आंखें चमकीं
भरभूजे की नजरें पेड़ों पर अटकीं
खरहरा खांचा और भरसायं को
फिर जगाने का अवसर आया
पक्षियां ले रहीं अंगड़ाई छोड़ घोंसले
गिलहरी भी ठंड को दिखा रही अकड़
आया पतझड़
–डॉ एमडी सिंह
जगे हैं क्या !
(गाजीपुर यूपी में कई सालों से ग्रामीण क्षेत्रों में होमियोपैथी की चिकत्सा कर रहे हैं)
कविता
जाई कोरोना
भइया छोड़ि दा रोना-धोना
लग्गी टीका जाई कोरोना
जिन भागा चला हाथ बढ़ावा
टिकवइयन से बोला लगावा
लगवा के सूई सुनि ल पहिले
अउरी सभन के जा सहकावा
बन्नल तब्बै रही चोना-मोना
लग्गी टीका जाई कोरोना
त रही बहुरिया तूहूं रहबा
जिउ जवन चाही ऊहै करबा
न कारन करि-करि केहू रोई
जिनगी जेतना चाही जियबा
चल्ली ना फेरु केहू क टोना
लग्गी टीका जाई कोरोना
कहा लगवाके सबसे आके
रहीमा रजुई चुम्मन बाँके
किछु हेन-तेन न घोखैं सगरी
धउड़ैं जल्दी लगवावैं जाके
त रीन्हें चाउर अउर निमोना
लग्गी टीका जाई कोरोना
अउर सभन के एक ना जूरल
हमनी क दुद्दू दुद्दू गो पूरल
सगर जगत हमनिये से पाई
हमन के हण्डा वैक्सीन चूरल
बगैर टीका लगल केहू हो ना
लग्गी टीका जाई कोरोना
सहकावा-उकसाइये
चोना-मोना – प्यार-मोहब्बत
बहुरिया- पत्नी
हेन-तेन – आनाकानी
रीन्हना- पकाना
-डॉ. एमडी सिंह पीरनगर,
(गाजीपुर यू पी में कई सालों से ग्रामीण क्षेत्रों में होमियोपैथी की चिकत्सा कर रहे हैं)
तेरी बातों में न आ जाऊं इसलिए मुकर रहा हूं..
कविता

तेरी बातों में न आ जाऊं इसलिए मुकर रहा हूं,
कहीं तुझसे न उलझ जाऊं बच-बच के गुज़र रहा हूं।
तेरी बातों के सलवटों में करवटें गिनते-गिनते,
ख्वाबों की खाईयों में धीरे-धीरे उतर रहा हूं।
उनसे मिल के मेरी आदत कहीं और न बिगड़ जाए,
लो देख भी लो यारों मैं इसी डर से सुधर रहा हूं।
किसी दामन पे लग न जाऊं कहीं दाग बनके मैं भी,
अपनी शरारती हरकतों के परों को कुतर रहा हूं।
कहो जाके बिजलिओं को और गिरने से बाज़ आएं,
चोट खाने की आदतों से लम्हा-लम्हा उबर रहा हूं।
पीरनगर, गाजीपुर यूपी में लंबे समय से ग्रामीण क्षेत्रों में होमियोपैथी की चिकत्सा कर रहे हैं।
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